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नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हर इक लम्हा इक लम्हा-ए-जावेदाँ है
क़लम जैसे बूढ़ा सिपाही तमाशा-ए-अहल-ए-हुनर देखता हो
कैलाश माहिर
नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं