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नज़्म
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है
हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
ये मेरा झोंपड़ा तारीक है गंदा है परागंदा है
हाँ कभी दूर दरख़्तों से परिंदों की सदा आती है
नून मीम राशिद
नज़्म
वो कहते हैं: इस सवाल का जवाब दरख़्तों के पास है
कोई भी मौसम हो वो अपनी जगह नहीं छोड़ते
सरवत हुसैन
नज़्म
जहाँ एक चेहरा दरख़्तों की शाख़ों के मानिंद
इक और चेहरे पे झुक कर हर इंसान के सीने में
नून मीम राशिद
नज़्म
वो ख़मोशी शाम की जिस पर तकल्लुम हो फ़िदा
वो दरख़्तों पर तफ़क्कुर का समाँ छाया हुआ