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नज़्म
दर्द जब दर्द न हो काविश-ए-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदा-ए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
फिरा करते नहीं मजरूह-ए-उल्फ़त फ़िक्र-ए-दरमाँ में
ये ज़ख़्मी आप कर लेते हैं पैदा अपने मरहम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये क्या मुमकिन नहीं तू आ के ख़ुद अब इस का दरमाँ कर
फ़ज़ा-ए-दहर में कुछ बरहमी महसूस होती है
कँवल एम ए
नज़्म
आदमी मिन्नत-कश-ए-अरबाब-ए-इरफ़ाँ ही रहा
दर्द-ए-इंसानी मगर महरूम-ए-दरमाँ ही रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जान लेते हैं कि अब वो रात ही दरमाँ बनेगी दर्द के अम्बार का
जिस के बिखरे दामन-ए-सद-चाक में
मीराजी
नज़्म
हर इक शय अजनबी सी ग़ैर सी महसूस होती है
न कोई इज़्तिराब-ए-दिल न कोई काहिश-ए-दरमाँ