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नज़्म
यही वो मंज़िल-ए-मक़्सूद है कि जिस के लिए
बड़े ही अज़्म से अपने सफ़र पे निकले थे
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
वासिल-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद न होते क्यूँकर
फ़रस-ए-इश्क़ पे असवार गुरु-नानक थे
श्याम सुंदर लाल बर्क़
नज़्म
सर्व-क़द मिट्टी के बौनों के क़दम चूमेंगे
फ़र्श पर आज दर-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा बंद हुआ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
है हमारी मंज़िल-ए-मक़्सूद ता'मीर-ए-वतन
कारवाँ अब तक हमारा कामराँ बढ़ता गया
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
शिआर की जो मुदारात-ए-क़ामत-ए-जानाँ
किया है 'फ़ैज़' दर-ए-दिल दर-ए-फ़लक से बुलंद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हुर्रियत-ए-आदम की रह-ए-सख़्त के रह-गीर
ख़ातिर में नहीं लाते ख़याल-ए-दम-ए-ताज़ीर