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नज़्म
बाइ'स-ए-दिल-बस्तगी अल्फ़ाज़ का जादू न हो
देख लफ़्ज़ों में निहाँ दम का कोई पहलू न हो
ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
तिरे ए'जाज़ से क़ाएम मिरी दुनिया की रौनक़ है
तिरी दिल-बस्तगी से शोरिशें हैं बज़्म-ए-हस्ती में
सिद्दीक़ कलीम
नज़्म
मगर उस की रानाइयों से मुझे कोई दिल-बस्तगी ही नहीं थी
कभी राह चलते हुए ख़ाक की रूह-परवर कशिश
शकेब जलाली
नज़्म
तुझ में ये दिल-बस्तगी आई कहाँ से क्या है तू
बाग़ में जा कर जो देखो हुस्न का दरिया है तू
हामिद हसन क़ादरी
नज़्म
जाती है तू कहाँ को आती है तू कहाँ से
दिल-बस्तगी है तुझ को किस बहर-ए-बे-निशाँ से
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
उस दिन बस्ती में रोने वालों का दिन था और तुम ने कहा था
ये लोग समुंदर मथ कर पीते थे अब रोते हैं
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
दिल की आँख से ख़ैर के सारे रौशन मंज़र देखने वालो!
हद्द-ए-नज़र तक फैली हुई सब रौशनियों सारे रंगों को
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
अभी कुछ दिन मुझे इस शहर में आवारा रहना है
कि अब तक दिल को उस बस्ती की शामें याद आती हैं