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नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
तू किसी क़र्या-ए-ज़िंदाँ में है शायद कि जहाँ
तौक़ ही तौक़ हैं दीवारें ही दीवारें हैं
अहमद फ़राज़
नज़्म
सब जान के सपने देखते हैं सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो