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नज़्म
दो-जहाँ का हुस्न ले कर मुंतज़िर है शाम खिड़की पर
शिकस्ता-पुर्सी ना-उम्मीद अश्क आँखों में भर कर
तरन्नुम रियाज़
नज़्म
कि साग़र की खनक में ज़ौक़-ए-मस्ती का पयाम आए
मिरे यास-आफ़रीं दिल में नई उम्मीद पैदा हो
मैकश हैदराबादी
नज़्म
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
घर से निकला है हर इक शख़्स कुछ उम्मीद लिए
दिल में अरमान भी हैं रास्ते पुर-ख़ार भी हैं