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नज़्म
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
गुलज़ार
नज़्म
भरी दोपहर में सर अपना जो ढक कर मिलने आती थीं
जो पंखे हाथ के झलती थीं और बस पान खाती थीं
असना बद्र
नज़्म
जो और किसी का मान रखे तो उस को भी अरमान मिले
जो पान खिला दे पान मिले जो रोटी दे तो नान मिले
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
सिगरेट ने ये इक पान के बीड़े से कहा
तू हमेशा से परी-रूयों के झुरमुट में रहा