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नज़्म
यूँ तो मुझ से हुईं सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िक़्रों को तो परखा होता
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
क्यूँ उठा है जिंस-ए-शायर के परखने के लिए
क्या शमीम-ए-सुम्बुल-ओ-नस्रीं है चखने के लिए
जोश मलीहाबादी
नज़्म
बैरी दुनिया ने तुम्हें ठीक से परखा ही नहीं
मेरी आँखों से किसी ने तुम्हें देखा ही नहीं