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नज़्म
बोलते साए नज़र आते हैं
जाने पहचाने हैं फिर भी नए मफ़्हूम समझाते हैं समझाते ही चले जाते हैं
मीराजी
नज़्म
ज़िंदगी को नागवार इक सानेहा जाने हुए
बज़्म-ए-किबर-ओ-नाज़ में फ़र्ज़ अपना पहचाने हुए
सीमाब अकबराबादी
नज़्म
सैंकड़ों मन यूँ तो गेहूँ मेरे तह-ख़ाने में है
और मज़ा भी क्या मुझे आज़ार पहचाने में है