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नज़्म
ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए
हम अब उस उम्र को आ पहुँचे हैं जब हम भी यूँही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मिरी शिरयान में सहमे हुए बच्चों पे क्या गुज़री
वो किस रस्ते पे चल निकले कि अपने घर नहीं पहुँचे