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नज़्म
उफ़ ये शबनम से छलकते हुए फूलों के अयाग़
इस चमन में हैं अभी दीदा-ए-पुर-नम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
दिखा वो हुस्न-ए-आलम-सोज़ अपनी चश्म-ए-पुर-नम को
जो तड़पाता है परवाने को रुलवाता है शबनम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
पढ़ लेती हैं कैफ़िय्यत कुछ तड़पी हुई नज़रें
दुख अपना मैं हर चश्म-ए-पुर-नम से नहीं कहता
मीम हसन लतीफ़ी
नज़्म
कलियाँ बे-ज़ार हैं शबनम के तलव्वुन से मगर
तू ने इस दीदा-ए-पुर-नम को तो देखा होता