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नज़्म
काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब
सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क़-ए-आब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
इब्न-ए-मरयम भी उठे मूसी-ए-इमराँ भी उठे
राम ओ गौतम भी उठे फ़िरऔन ओ हामाँ भी उठे
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दिल में वो मज़दूर फिर कहने लगा उफ़ रे ग़ज़ब
जो भी इस दुनिया में हैं फ़िरऔन हैं वो सब के सब
अर्श मलसियानी
नज़्म
न ग़िज़ा में न दवा में है तो फिर कौन है तू
तू हलाकू है कि तैमूर कि फ़िरऔन है तू
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
तख़्त को वक़्त का फ़िरऔन भी बनते देखा
ज़ेर-ए-शमशीर ये 'सरमद' ने कहा हँसते हुए