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नज़्म
ज़रा नज़्ज़ारा ही ऐ बुल-हवस मक़्सद नहीं उस का
बनाया है किसी ने कुछ समझ कर चश्म-ए-आदम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बुल-हवस नज़रों से बचती काँपती जाती है वो
दस घरों में जा के बर्तन माँझती है तब कहीं