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नज़्म
बे-निशानी की चादर चढ़ाने को जितना समय चाहिए
वो हथेली की उलझी लकीरों से लड़ने में लग जाएगा
अदनान मोहसिन
नज़्म
मगर ये बे-निशानी जिन ख़लाओं को जनम देती है
उन्हें भरने को जीवन कोंपलों से आख़िर इक दिन फूटता है
मैमूना अब्बास ख़ान
नज़्म
ख़याल-ओ-फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ से नहीं अब मुझ को दिलचस्पी
कि उन से ज़ेहन-ओ-दिल के सारे नाते तोड़ आया हूँ
अख़तर बस्तवी
नज़्म
'ख़ुसरव' 'कबीर' 'तुलसी' 'ग़ालिब' की हैं अमानत
क्या बे-निशान होगी प्यारी ज़बाँ हमारी