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नज़्म
समाते हैं फिर उस में ठस के यूँ बे-लुत्फ़-ओ-आसाइश
नहीं रहती है नालों के निकलने की भी गुंजाइश
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
मिरी मस्ती में भी अब होश ही का तौर है साक़ी
तिरे साग़र में ये सहबा नहीं कुछ और है साक़ी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
क़ल्ब-ए-इंसानी में रक़्स-ए-ऐश-ओ-ग़म रहता नहीं
नग़्मा रह जाता है लुत्फ़-ए-ज़ेर-ओ-बम रहता नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
थी हर इक जुम्बिश निशान-ए-लुत्फ़-ए-जाँ मेरे लिए
हर्फ़-ए-बे-मतलब थी ख़ुद मेरी ज़बाँ मेरे लिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क़फ़स का दर खुला इक नीम-जाँ कम-सिन
परिंदा चंद ख़स्ता ज़ाइचों पर रक़्स के अंदाज़ में आगे
बलराज कोमल
नज़्म
जवानी की अँधेरी रात है ज़ुल्मत का तूफ़ाँ है
मिरी राहों से नूर-ए-माह-ओ-अंजुम तक गुरेज़ाँ है