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नज़्म
कभी सूरज नहीं निकला तो सुस्ती की सज़ा देंगे
उठक-बैठक कराएँगे उसे मुर्ग़ा बना देंगे
सफ़दर अली सफ़दर
नज़्म
मैं झोंपड़ियों में रहता हूँ तेरा पुल के नीचे मस्कन
दोनों में ताक़ न मेहराबें कैसी बैठक कैसा आँगन
सलाम संदेलवी
नज़्म
हबीब जालिब
नज़्म
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जब फ़िक्र-ए-दिल-ओ-जाँ में फ़ुग़ाँ भूल गई है
हर शब वो सियह बोझ कि दिल बैठ गया है