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नज़्म
अभी इक साल गुज़रा है यही मौसम यही दिन थे
मगर मैं अपने कमरे में बहुत अफ़्सुर्दा बैठा था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
और कहफ़ के ग़ार में झाँकूँ जहाँ बैठे हुए
असहाब माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत में मगन हैं