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नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
क्या तुझे भी इंतिज़ार-ए-आमद-ए-महबूब है
क्यों परेशाँ इस क़दर है क्या तुझे मतलूब है
साक़िब कानपुरी
नज़्म
इम्तियाज़-ए-तालिब-ओ-मतलूब तक बाक़ी नहीं
गर्दिश-ए-दौराँ से ये लम्हा जुदा है आज-कल
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
ख़ुदा-ए-लम-यज़ल का दस्त-ए-क़ुदरत तू ज़बाँ तू है
यक़ीं पैदा कर ऐ ग़ाफ़िल कि मग़लूब-ए-गुमाँ तू है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं