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नज़्म
ऐ हिन्द के बाशिंदो आओ उजड़ा गुलज़ार सजा डालें
अब दौर-ए-ग़ुलामी ख़त्म हुआ इक ताज़ा जहाँ की बिना डालें
कँवल डिबाइवी
नज़्म
शिकस्ता हूँ मगर दौलत भी है हासिल हुई हम को
गुज़ारे साथ जो पल क़द्र उस की हो नहीं किस को