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नज़्म
अपनी प्यास इक दूसरे के ख़ूँ से बुझा रही है
ये संग-दिल जश्न-ए-मर्ग-ए-अम्बोह-ए-बे-गुनाहाँ मना रहे हैं
ज़िया जालंधरी
नज़्म
मक़ाम-ए-मर्ग-ए-ताज़गी मक़ाम-ए-मर्ग-ए-नग़्मगी
हवा नमी सफ़ेद धूप ज़र्द फूल देखते ही देखते गुज़र गए
बलराज कोमल
नज़्म
इलाही फिर मज़ा क्या है यहाँ दुनिया में रहने का
हयात-ए-जावेदाँ मेरी न मर्ग-ए-ना-गहाँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो मर्ग-ए-भीष्म-पितामह वो सेज तीरों की
वो पांचों पांडव की स्वर्ग-यात्रा की कथा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
बढ़ती हुई उमीदें उठती हुई उमंगें
मिट्टी में मिल गईं सब इस मर्ग-ए-ना-गहाँ से