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नज़्म
टुकड़े होता है जिगर देहली के सदमे सुन के 'ऐश'
और दिल फटता है सुन कर हाल-ए-ज़ार-ए-लखनऊ
हकीम आग़ा जान ऐश
नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम
क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
चाँद और सूरज का हमदम हूँ फ़लक-पैमा हूँ मैं
आज तक महव-ए-तलाश-ए-फ़ितरत-ए-कुबरा हूँ मैं