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नज़्म
ख़्वाब-ए-गिराँ से ग़ुंचों की आँखें न खुल सकीं
गो शाख़-ए-गुल से नग़्मा बराबर उठा किया
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन
क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मिस्ल-ए-पैराहन-ए-गुल फिर से बदन चाक हुए
जैसे अपनों की कमानों में हों अग़्यार के तीर
अहमद फ़राज़
नज़्म
ख़िज़ाँ तमाम हुई किस हिसाब में लिखिए
बहार-ए-गुल में जो पहुँचे हैं शाख़-ए-गुल को गज़ंद