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नज़्म
ख़ून-ए-दिल में है निहाँ शोला-ए-सद-रंग-ए-बहार
इस गुलिस्ताँ में हैं इस राज़ के महरम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
तेरी पेशानी-ए-रंगीं में झलकती है जो आग
तेरे रुख़्सार के फूलों में दमकती है जो आग
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
अरसा-ए-दहर पे सरमाया ओ मेहनत की ये जंग
अम्न ओ तहज़ीब के रुख़्सार से उड़ता हुआ रंग
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
शिद्दत-ए-इफ़्लास से जब ज़िंदगी थी तुझ पे तंग
इश्तिहा के साथ थी जब ग़ैरत ओ इस्मत की जंग
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
अँधेरी रात में जब मुस्कुरा उठते हैं सय्यारे
तरन्नुम फूट पड़ता है मिरे साज़-ए-रग-ए-जाँ से