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नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जड़ हिला दी ज़ुल्म की इक ऐसा मस्ताना था वो
जाम अज़्मत के दिए इक पीर-ए-मय-ख़ाना था वो
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं
ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वो ख़ाक हो कि जिस में मिलें रेज़ा-हा-ए-ज़र
वो संग बन कि जिस से निकलते हैं लाल-ए-नाब