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नज़्म
क़मर अपने लिबास-ए-नौ में बेगाना सा लगता था
न था वाक़िफ़ अभी गर्दिश के आईन-ए-मुसल्लम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
राहज़न पहने हुए हैं अब लिबास-ए-रहबरी
नूर के साए में ज़ुल्मत को जवाँ पाता हूँ मैं
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
ज़ेब देता है लिबास-ए-नौ नए अंदाज़ में
तन बदन भी है मोअ'त्तर ये जमाल-ए-ईद है