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नज़्म
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
आह उस ख़्वाब-ए-शबाना का है मुझ को इंतिज़ार
उस सुरूर-ए-आशिक़ाना का है मुझ को इंतिज़ार
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
धूप नगर के बासी हैं हम धूप की पहरे-दारी है
धूप-नगर में धूप के खे़मे धूप की ही गुल-कारी है
शबाना नज़ीर
नज़्म
जमी हुई है अभी महफ़िल-ए-शबाना-ए-नाज़
अभी ज़बान-ए-मोहब्बत पे है फ़साना-ए-नाज़