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नज़्म
ये कैसी लज़्ज़त से जिस्म शल हो रहा है मेरा
ये क्या मज़ा है कि जिस से है उज़्व उज़्व बोझल
फ़हमीदा रियाज़
नज़्म
बड़े शहर की चाह में, जाने कैसे कैसे गुनाह किए
यहाँ तक कि आँखें हमारी पथरा गईं, पाँव हमारे शल हुए
परवेज़ शहरयार
नज़्म
दस्त-ओ-बाज़ू जिस के शल जिस का सफ़ीना पाश पाश
क्या इसी को पालती है मादर-ए-हिन्दोस्ताँ
मयकश अकबराबादी
नज़्म
ज़ेहनों को जो शल कर देता है वो बोझ उतारा करते हैं
सद शुक्र के वो दिन बीत गए जब कूचा-गर्दी करते थे
सय्यदा फ़रहत
नज़्म
मुझे नाख़ुन से कुरेद, आ चल के कहीं बैठें
बादशाह के हुज़ूर खड़े खड़े मैं शल हो गई