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नज़्म
निगार-ए-शाम-ए-ग़म मैं तुझ से रुख़्सत होने आया हूँ
गले मिल ले कि यूँ मिलने की नौबत फिर न आएगी
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
निगार-ए-शाम-ए-ग़म मैं तुझ से रुख़्सत होने आया हूँ
गले मिल ले कि यूँ मिलने की नौबत फिर न आएगी
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
कर चुकी ख़ून-ए-तमन्ना तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म
आसमाँ पर अब नया सूरज दरख़्शाँ है तो क्या
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
मस्ताना हाथ में हाथ दिए ये एक कगर पर बैठे थे
यूँ शाम हुई फिर रात हुई जब सैलानी घर लौट गए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
शाम-ए-ग़म होती है नमनाक ओ ज़िया-आलूदा
यही मज़लूमों की जीत और यही ज़ालिम की शिकस्त
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
शाम-ए-ग़म कैसी है अब सुब्ह-ए-मसर्रत बन जाओ
हम तुम्हें क़त्ल ही कर देंगे तुम्हारी ख़ातिर
अब्दुल मजीद भट्टी
नज़्म
इसी में सुब्ह-ए-तमन्ना नहा के निखरेगी
किसी की ज़ुल्फ़ न अब शाम-ए-ग़म में बिखरेगी
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
नज़ारे शहर-ओ-साहिल के परेशाँ हो गए होंगे
ढली होगी जो शाम-ए-ग़म सितारे सो गए होंगे