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नज़्म
और फिर अंजान अपनी अन-जानी हँसी में हँसा
क़हक़हे का पत्थर संग-रेज़ो में तक़्सीम हो गया
सारा शगुफ़्ता
नज़्म
मैं जब उस से मिलने जाता हूँ अकेले रास्ते पर
अन-गिनत आँखें सितारों संग-रेज़ों पत्तियों की
बिमल कृष्ण अश्क
नज़्म
संग-रेज़ो की निगाहों में चमकती हुई लौट आती है
कोई समझाए उसे जाओ चली जाओ यहाँ अब क्या है
अल्ताफ़ गौहर
नज़्म
हो वहाँ क़द्र-ए-जवाहिर का किसे फ़िक्र-ओ-ख़याल
संग-रेज़ों का जहाँ नाम गुहर है ऐ दोस्त