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नज़्म
लेकिन चाँद की तरह माथे पर सजाना नहीं चाहता
क्यों कि अख़्तर-शुमारी से महज़ रात काटी जा सकती है
डॉ. मुबश्शिरा सदफ़ ' ग़ज़ल'
नज़्म
कहाँ अब जादा-ए-ख़ुर्रम में सर-सब्ज़ाना जाना है
कहूँ तो क्या कहूँ मेरा ये ज़ख़्म-ए-जावेदाना है
जौन एलिया
नज़्म
मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं