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नज़्म
तिरा ये रिंद-ए-सर-गश्ता जिसे 'फ़ारूक़' कहते हैं
इसी तन्क़ीद के चलते बहुत बदनाम है साक़ी
शमीम फ़ारूक़ बांस पारी
नज़्म
बहर-ए-तूफ़ानी-ए-दुनिया में हैं हम सर-गश्ता
मौज-ए-ग़म में है जहाज़ अपना थिएटर खाता
सूरज नारायण मेहर
नज़्म
शहर के शहर का अफ़्साना वो ख़ुश-फ़हम मगर सादा मुसाफ़िर
कि जिन्हें इश्क़ की ललकार के रहज़न ने कहा: आओ!
नून मीम राशिद
नज़्म
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
फ़रेब-ए-आरज़ू ने कर दिया गुम-गश्ता-ए-मंज़िल
कि गर्द-ए-राह भी संग-ए-निशाँ मालूम होती है
राम लाल वर्मा हिंदी
नज़्म
मैं कि ख़ुद अपनी ही आवाज़ के शो'लों का असीर
मैं कि ख़ुद अपनी ही ज़ंजीर का ज़िंदानी हूँ
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
मैं कि ख़ुद अपनी ही आवाज़ के शो'लों का असीर
मैं कि ख़ुद अपनी ही ज़ंजीर का ज़िंदानी हूँ
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
ऐ मिरे शेर के नक़्क़ाद तुझे है ये गिला
कि नहीं है मिरे एहसास में सरमस्ती ओ कैफ़