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नज़्म
और फिर हाल के फैले हुए पर्दे के हर इक सिलवट पर
यक-ब-यक दामन-ए-माज़ी के लरज़ते हुए साए नाचे
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
शीशे की इस शफ़्फ़ाफ़ चादर को कभी अब तक तो कोई तोड़ कर आगे नहीं आया
मैं इक आँसू भरे लम्हे की सिलवट