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नज़्म
यूँ लाई दोश पे लाश सी क्या रंगीं दिन की बर्बादी की
ये शाम ये गहरी शाम ये हर लहज़ा बढ़ती हुई तारीकी!
क़य्यूम नज़र
नज़्म
कोई सूरज किसी की आस्तीं से फिर हमें आवाज़ देता है
और इस आवाज़ से हद-ए-नज़र तक रौशनी सी है
अज़ीज़ क़ैसी
नज़्म
यही वो मंज़िल-ए-मक़्सूद है कि जिस के लिए
बड़े ही अज़्म से अपने सफ़र पे निकले थे