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नज़्म
है ''ज़'' बाज़ार में तो दरमियाँ 'ज़रयून' में अव्वल
तो ये इब्राफ़नीक़ी खेलते हर्फ़ों से थे हर पल
जौन एलिया
नज़्म
मेरा दीवारों के अंदर दम क्यूँ घुटने लगता है
मेरे सर पर बोझ है क्यूँ कत्बों पर लिक्खे हर्फ़ों का
ख़लीक़ुर्रहमान
नज़्म
कोई भी फ़ोन की घंटी अचानक जब भी बजती है
तो उस आवाज़ और हर्फ़ों से जो तस्वीर बनती है
नूर अमरोहवी
नज़्म
जमीलुर्रहमान
नज़्म
छोड़ जाने दीजिए बहुत हो गई जनाब
सुनहरे हर्फ़ों में लिखा जा चुका है आप का नाम अन-लिखी तारीख़ में