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नज़्म
मुक़द्दरात की घटस है अब तो ज़ीक़-ए-नफ़स
शिकस्ता करना है ज़ंजीर-ए-हल्क़ा-हा-ए-नविश्त
सफ़दर आह सीतापुरी
नज़्म
आलम-ए-दूद-ए-सियह वो ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-फ़ाम में
दौड़ने वाले वो शोले हल्क़ा-हा-ए-दाम में
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
सालहा बे-दस्त-ओ-पा हो कर बुने हैं तार-हा-ए-सीम-ओ-ज़र
उन के मर्दों के लिए भी आज इक संगीन जाल