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नज़्म
कपड़े की ज़रूरत ही क्या है मज़दूरों को, हैवानों को
क्या बहस है, सर्दी गर्मी से लोहे के बने इंसानों को
जमील मज़हरी
नज़्म
दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद
बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार
हबीब जालिब
नज़्म
पर बहस करने और मंसूबे बनाने की खुली आज़ादी दी
यारो! चलो सड़कों पे नंगे सैर करने जाएँ
अब्बास अतहर
नज़्म
मग़रिब-ओ-मशरिक़ की सारी बहस में तुम ना-उमीदी के सिवा क्या दे सके
ना-उमीदी कुफ़्र है
अंजुम आज़मी
नज़्म
बहस करते रहो लिखते रहो नज़्में ग़ज़लें
ज़ेहन पर सदियों से तारी है जो मज्लिस की फ़ज़ा
वहीद अख़्तर
नज़्म
बहस रहती थी कि है कौन वफ़ा का पाबंद
हैफ़ ये उक़्दा-ए-सर-बस्ता खुला तेरे बाद