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नज़्म
धुआँ-धार जलती चिताओं में घिर कर तड़ख़ती उछलती हूँ
कहती हूँ तक़दीर बर-हक़ है बर-हक़ है ज़िंदा अटल
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
एक एक शय सँभल रही है इल्म ही के ज़ोर से
अटल बला भी टल रही है इल्म ही के ज़ोर से