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नज़्म
मगर ये मय-कश कभी किसी के लहू से सैराब कब हुआ है
हमेशा आँसू पिए हैं उस ने हमेशा अपना लहू पिया है
तारिक़ क़मर
नज़्म
शराब आँखों से ढल रही है, नज़र से मस्ती उबल रही है
छलक रही है उछल रही है, पिए हुए हैं पिला रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
दिल में सोज़-ए-ग़म की इक दुनिया लिए जाता हूँ मैं
आह तेरे मय-कदे से बे-पिए जाता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
ख़ून अर्ज़ां है ग़रीबों का पिए जाते हैं
जब ये पीने ही पर आ जाएँ तो फिर दरिया क्या