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नज़्म
चाक-गिरेबाँ इक दीवाना फिरता है हैराँ हैराँ
पत्थर से सर फोड़ मरेगा दीवाने को सब्र कहाँ
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
आठ करोड़ मस्ख़रे निकल आते हैं अपने रंगे चेहरों और लम्बी टोपियों के साथ
तोड़-फोड़ डालते हैं आसमान
सरवत हुसैन
नज़्म
तोड़ फोड़ कर द्वार धनुष सब कर दे एक समान
मन-मंदिर में बस न सके तो मत कहला भगवान
अब्दुल मजीद भट्टी
नज़्म
चलो दारू पिएँ दीवार से सर फोड़ के रोएँ
नशा उतरे तो उस की याद में इक मर्सिया लिक्खें
ज़ुबैर रिज़वी
नज़्म
फोड़ कर सर जेल में बे-चारा मजनूँ मर गया
और सदाएँ हर तरफ़ हैं यार ज़िंदाबाद की