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नज़्म
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मैं ने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी ख़ुदी को तुम ने चंद चमतकारों से मारना चाहा
गुलज़ार
नज़्म
वो 'भगत-सिंह' अब भी जिस के ग़म में दिल नाशाद है
उस की गर्दन में जो डाला था वो फंदा याद है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
तिरे मातम में शामिल हैं ज़मीन ओ आसमाँ वाले
अहिंसा के पुजारी सोग में हैं दो जहाँ वाले
नज़ीर बनारसी
नज़्म
खा के तंदुल कहीं ए'ज़ाज़ सुदामा को दिया
साग ख़ुश हो के 'बिदुर-जी' का किया नोश कहीं
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
नज़्म
मैं ने कुछ फ़िल्मों के सहारे फिर से हँसना सीख लिया है
मैं ने ख़ुद को वक़्त दिया है