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नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सहर-दम झुटपुटे के वक़्त रातों के अँधेरे में
कभी मेलों में नाटक-टोलियों में उन के डेरे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
जहाँ जहाँ कल पुराने लफ़्ज़ों ने डाल रक्खे थे अपने डेरे
वहाँ नए लफ़्ज़ आ के आबाद हो गए हैं
मख़मूर सईदी
नज़्म
कम-ज़र्फ़ कमीने लोगों ने हर जानिब डेरे डाले हैं
बाहर से तो ये सब अच्छे हैं लेकिन अंदर से काले हैं