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नज़्म
वो मुजस्सम हमहमा था वो मुजस्सम ज़मज़मा
वो अज़ल से ता अबद फैली हुई ग़ैबी सदाओं का निशाँ
नून मीम राशिद
नज़्म
और अब उन की ग़ैबी सदाओं के असरार को चार-सू देखता हूँ
मुझे इल्म है हर सदा दूर से आने वाली सदा है
सुहैल अहमद ख़ान
नज़्म
न ना’रा इंक़लाब-ए-नौ का न ग़ैबी निदा यारो
फ़क़त हूँ इक दिल-ए-सद-चाक से निकली सदा यारो
सदा अम्बालवी
नज़्म
मगर सारी आराइशों में समा कर
सराबों की मौजों के ग़ैबी थपेड़ों ने पल पल निखारा है बोसीदा चेहरे को मेरे
रियाज़ लतीफ़
नज़्म
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा