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नज़्म
ग़लग़ला तेरी सताइश का हो ता-चर्ख़-ए-कुहन
और तेरे जाँ-निसारों के हो लब पर ये सुख़न
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
खुलीं जो आँखें तो सर पे नीला फ़लक तना था
चहार-जानिब सियाह पानी की तुंद मौजों का ग़लग़ला था