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नज़्म
राद हूँ बर्क़ हूँ बेचैन हूँ पारा हूँ मैं
ख़ुद-प्रुस्तार, ख़ुद-आगाह ख़ुद-आरा हूँ मैं
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
जब रऊनत छेड़ती है ख़ुद-परस्ती का सितार
भेस में आहों के दिल होता है मेरा नग़्मा-बार
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
ख़ुदा महफ़ूज़ ही रक्खे हमें इन ख़ुद-परस्तों से
जो ख़ुद को जानते कम हैं समझते हैं मगर ज़्यादा
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
ख़ुद-परस्तों से भी ताआत की ज़ंजीर कहाँ कटती है
रात आती है तो दिल कहता है हम अपने हैं
वहीद अख़्तर
नज़्म
ये वो ज़मीं तो नहीं तू ने जिस को चाहा था
यहाँ तो फूट है नफ़रत है ख़ुद-परस्ती है
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
नज़्म
एक जिस्म-ए-ना-तवाँ इतनी दबाओं का हुजूम
इक चराग़-ए-सुब्ह और इतनी हवाओं का हुजूम