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नज़्म
अगर इस मज्लिस-गेती में औरों को रुलाता है
दिल-ए-दर्द-आश्ना-ओ-दीदा-ए-ख़ूँ-बार पैदा कर
अज़ीमुद्दीन अहमद
नज़्म
शब-ए-तन्हाई में इस ने उसे बेदार पाया है
और अक्सर दीदा-ए-सरशार को ख़ूँ-बार पाया है
अख़्तर शीरानी
नज़्म
दिल में सोज़-ए-क़ौम हो सीने में दर्द-ए-हुर्रियत
आँख को बहर-ए-वतन ख़ूँ-बार होना चाहिए
सरदार नौबहार सिंह साबिर टोहानी
नज़्म
कहीं रंज-ओ-अलम के ज़र्द लम्हे कसमसा कर बैठ रहते हैं
यहाँ ख़ूँ-बार मंज़र भी कई बरसों से ठहरे हैं
हिजाब अब्बासी
नज़्म
बिगड़ जाती है क्यूँ बन बन के हर तदबीर भारत की
बना दे या ख़ुदा बिगड़ी हुई तक़दीर भारत की
नो बहार साबिर
नज़्म
ख़ून बन बन कर पसीना हर बुन-ए-मू से रवाँ
चार पैसे के लिए जो बन गया था जानवर