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नज़्म
सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं
तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की
जौन एलिया
नज़्म
क्या बात हुई किस तौर हुई अख़बार से लोगों ने जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक इंशा नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
अख़बार मैं ने देखा तो मुझ पर हुआ अयाँ
होते हैं पास वो भी न दें जो कि इम्तिहाँ
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
क्यूँ न एडीटर बनूँ अख़बार-ए-गौहर-बार का
और क़लम को रूप दूँ चलती हुई तलवार का