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नज़्म
ये वो जमुना है जहाँ इक बानु-ए-पर्दा-नशीं
आगरा में महव-ए-आसाइश है जो ज़ेर-ए-ज़मीं
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
जो है इक नंग-ए-हस्ती उस को तुम क्या जान भी लोगे
अगर तुम देख लो मुझ को तो क्या पहचान भी लोगे
जौन एलिया
नज़्म
अगर उस्मानियों पर कोह-ए-ग़म टूटा तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-सद-हज़ार-अंजुम से होती है सहर पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो