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नज़्म
तैश में आकर फ़रिश्तों से किया तब यूँ ख़िताब
ज़िंदगी भर की रियाज़त का सिला ये है जनाब
सय्यद हशमत सुहैल
नज़्म
ग़म को ख़ुद आकर बहा जाएगी मौज-ए-सुरूर
देखता क्या है उठ और फ़िक्र-ए-मय-ओ-पैमाना कर
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
बहार आकर चमन में इक नया मुज़्दा सुनाती है
ज़माना रक़्स में है ज़िंदगी ख़ुशियाँ मनाती है