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नज़्म
आशिक़-ए-बिन्त-ए-एनब को आप कहते हैं वली
फ़ाक़ा-मस्ती में भी हर दम कर रहा है मय-कशी
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
क्यूँ न हों अहल-ए-वतन के अश्क-ए-ख़ूँ जू-ए-वफ़ा
फूल बरसाओ शहीदान-ए-वतन की ख़ाक पर
तिलोकचंद महरूम
नज़्म
ख़्वाब क्या क्या दिल-ए-दीवाना ने देखे थे 'नियाज़'
क्या भयानक मिली उन ख़्वाबों की ता'बीर हमें
नियाज़ गुलबर्गवी
नज़्म
आए वो बहर-अयादत डाल कर रुख़ पर नक़ाब
रह गया अरमान दिल में आशिक़-ए-नाशाद का